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सिक्किम

भूतपूर्व हिमालयी राज्य सिक्किम सन १९७४ में भारत का हिस्सा बना। पूर्वी हिमालय का हिस्सा होने के नाते सिक्किम का पर्वतीय भूभाग गिरिपीठ के उष्णकटिबंधीय जंगलों से आरंभ होकर उच्च पर्वत शिखरीय घाटियों एवं गगनचुंबी चोटियों तक ऊपर उठता है। विश्व की तीसरी सबसे ऊँची चोटी, कंचनजंगा, सिंगलीला पर्वत श्रेणी में स्थित है जो नेपाल और सिक्किम के बीच एक सीमा के रूप में खड़ी है। यह पर्वतीय राज्य उत्तर में तिब्बत, पूर्व एवं दक्षिण में भूटान एवं पश्चिम में नेपाल से घिरा हुआ है। सिक्किम अपनी इस भूगौलिक स्थिति के कारण बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-जातीय विशेषताओं से युक्त है। लेपचा, भूटिया एवं नेपाली सिक्किम के पर्वतों में रहने वाली प्रमुख जातियाँ हैं और इसके फलस्वरूप यहाँ का भोजन इन समुदायों का प्रतिनिधि स्वरूप है। समय के साथ महाद्वीप से अनेक समुदाय यहाँ आकर बस गए और अपने साथ इन पहाड़ियों में अपना विशिष्ट भोजन भी ले आए। सिक्किम के पूर्वीय हिमालयी क्षेत्र की भोजन संस्कृति समय के साथ पर्यावरणीय, सामाजिक और सांस्कृतिक आधार पर विकसित होती गई और कुछ व्यंजन पारंपरिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय सीमाओं को पार करके सिक्किम के सभी समुदायों द्वारा अपना लिए गए। इनमें से कुछ पाटलेसिशनू या सोच्या (बिच्छू-बूटी का सूप), थुपका (गेहूं के नूडल का सूप) और टिटेनिंगरो (छुरपि या पनीर के साथ फ़र्न का सालन) हैं। इन सब के अतिरिक्त, एक ऐसा व्यंजन है जो संस्कृति, भाषा एवं कल्पना के अवरोधों को तोड़कर भारत के सड़क के खाने के बाज़ार पर छा गया है, वह है मोमो

मोमो तिब्बत का एक विशेष व्यंजन है। यह एक गुलगुला नुमा व्यंजन है जिसमें आटे के टुकड़े के अंदर सब्जी या मांस के मसाले को भरकर इसे मकटू नामक भापतापी पात्र में भाप से पकाया जाता है।

विश्व में कई प्रकार के मोमो हैं और ये जॉर्जिया में खिनकाली, कोरिया में मांडू, रूस में पेलमेनि, पोलैंड में पेरिओगी, जापान में ग्योज़ा और चीन में जिआओज़ी के नामों से जाने जाते हैं । इस शानदार व्यंजन का इतिहास ईसा की तीसरी सदी में चीन में प्रारंभ हुआ । हान राजवंश के पतन के समय में ज़हाँग ज़्होंगींग नामक एक चिकित्सक था जिसने आटे, मांस, मिर्च एवं जड़ी-बूटियों से बने मिश्रण को उबालकर शीतदंश के उपचार का अविष्कार किया था। यह तो नहीं पता कि यह उपचार सफल रहा या नहीं, परंतु यह व्यंजन कई एशियाई देशों एवं पूर्व यूरोपीय देशों में एक पाक स्थिर वस्तु बन गया।

असली तिब्बती मोमो, जो एक लंबे सफर के बाद इस पहाड़ी नगरकोट से दक्षिण एशिया के अन्य भूभागों और देशों तक पहुँचा, आटे में याक के मांस और प्याज़ के मसाले को लपेटकर बनाया जाता है। चौदहवीं सदी के आसपास सिक्किम में आ बसने पर भूटिया लोग मोमो को अपने साथ यहाँ लाए थे। उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों से संबंध बनाए और लेपचा और लिंबुओं के साथ रक्त भाईचारा बनाया। शीघ्र ही मोमो भूटियों की रसोई से अन्य समुदायों की रसोइयों तक पहुँच गया। इन समुदायों ने अपने घरों एवं दिलों में मोमो को स्थान दिया और इस प्रकार सिक्किम में मोमो का सफ़र शुरू हुआ।

मोमो एक पारंपरिक व्यंजन है जो तिब्बती घरबारों में औपचारिक सुअवसरों पर बनाया जाता है। मोमो को बनाने का कार्य निश्चित ही बहुत श्रमसाध्य है और इसके लिए एक दलीय दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। एक अकेले व्यक्ति के लिए इसे बनाना कठिन है। इस प्रकार से मोमो एक प्रकार का समाजपरक व्यंजन है क्योंकि इसे बनाने में पूरे परिवार की और खाने में पूरे गाँव की आवश्यकता होती है। सबसे पहले मैदे और गेहूँ के आटे को बराबर बराबर लेकर पानी से गूंधा जाता है। इस मिश्रण में अच्छे गठन के लिए इसमें थोड़ा बेकिंग सोडा डाला जाता है। जब तक इसका मसाला बनाया जाता है तब तक के लिए आटे को अलग रख दिया जाता है। कई तरह के पिसे हुए मांस और सब्ज़ियों से इसका मसाला बनाया जा सकता है।

पारंपरिक तिब्बती गाय एवं मेमने के मांस के मोमो के मसाले को बनाने की सामग्री में पिसा हुआ गाय एवं मेमने का मांस, गरम पानी, बारीक कटी हुई अजमोदा, बारीक कटा हुआ हरा प्याज़, नमक, पिसा जीरा, कसा हुआ जायफ़ल और पीसी हुई अदरक शामिल हैं। इन सभी चीज़ों को एक बड़े कटोरे में मिला लिया जाता है और फिर अगला कार्य शुरू होता है। आटे को छोटे टुकड़ों में तोड़कर लगभग चार इंच के गोलों में बेल लिया जाता है। इसके बाद बिले हुए आटे में एक छोटा चम्मच मसाला भर दिया जाता है। फिर इस गोले को आधे में बंद कर दिया जाता है और आटे को एक ऐसी मोड़ने की प्रक्रिया द्वारा चिपकाया जाता है जो कि काफ़ी जटिल होती है और जिसे सीखने के लिए अभ्यास करना पड़ता है।

आटे को मोड़ने के कई वैकल्पिक तरीके हैं और इन सभी में आटे को किनारों पर इस प्रकार से दबाने की कला को सीखना पड़ता है कि आटा इतनी अच्छी तरह से बंद हो जाए जिससे कि भाप में पकते समय रस बहार न आ पाए। मकटू या भापतापी पात्र में मक्खन या तेल लगाया जाता है और फिर भरे हुए आटे के टुकड़ों को उसमें रख दिया जाता है। यह लगभग तीस मिनट तक भाप में पकते हैं। इसके बाद रसदार और भाप से पके मोमो मकटू से बाहर निकाल लिए जाते हैं और गरमागरम परोसे जाते है।

सिक्किम और निकटवर्ती दार्जिलिंग और कलिमपोंग जिलों में मोमो को एक पारदर्शी सूप और तीखी टमाटर और मिर्च की चटनी के साथ परोसा जाता है।

तिब्बत से नेपाल, भूटान और भारत जैसे स्थानों पर पहुँचने के बाद मोमो में कई बदलाव आए हैं। नेपाल की काठमांडू घाटी में स्थानीय रूप से मोमो चा नामक एक प्रकार का मोमो होता है जो भैंस के मांस, अदरक, लहसुन, और स्थानीय मसालों से बनाया जाता है। भारत में सिक्किम, लद्दाख और उत्तर पूर्व ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ मोमो की फलती-फूलती संस्कृति है। यहाँ से यह स्वादिष्ट व्यंजन भारत के अन्य क्षेत्रों में पहुँच गया है। भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में, तुरंत पहचान में आने वाले, मकटू के साथ फेरीवाला दिखाई देना एक आम बात हो गई है।

एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में मोमो एक अतिप्रिय एवं सस्ता शाम का नाश्ता बन गया है। मोमो बेचने वाले, अपनी अस्थायी दुकानों के साथ, दोनों वाणिज्यिक और आवासीय क्षेत्रों के बाज़ारों में, सडकों के किनारे खड़े दिखाई देते है। यहाँ तीन प्रकार के मोमो बेचे जाते हैं - सब्ज़ी के, चिकन के और पनीर के – जो सूखी मिर्च की तीखी चटनी (सॉस) या कभी-कभी मेयोनीज़ के साथ परोसे जाते है। अधिक विस्तृत दुकानों में इन्हें तलने की भी सुविधा होती है। शादी और समारोहों में तंदूरी मोमो (पंजाबी और तिब्बती स्वादों वाले मिश्रित मोमो) अल्पाहार के रूप में पेश किए जाते है। हाल ही में भारत में मोमो प्रेमी जनता की सेवा में मोमो रेस्टोरेंट शृंखलाएँ भी उभर कर आई हैं।

इस प्रकर मोमो ने न केवल भौगोलिक परन्तु सांस्कृतिक रूप से एक लंबा सफ़र तय किया है। मोमो का विकास हुआ है और अब यह कई प्रकार के स्वादों और रूपों में उपलब्ध है। यह जहाँ भी गया इसने, अपने मूल रूप को बनाए रखने के साथ साथ, अपनी मेज़बान संस्कृति के स्वादऔर सामग्रियों को समायोजित भी किया है। साधारण मोमो से लेकर कोठे मोमो (तवे पर तले हुए मोमो), से झोल मोमो (सालन वाले मोमो) तक, यह पर्वतीय क्षेत्र का व्यंजन एक वास्तविक सांस्कृतिक एवं पाक-विषयक अद्भुत तथ्य बन गया है।

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