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बेगम हज़रत महल: अवध की क्रांतिकारी रानी
बेगम हज़रत महल उन कुछ महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने १८५७ के विद्रोह के दौरान अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी। शादी से पहले उनका नाम मुहम्मदी ख़ानुम था। उनका जन्म फैज़ाबाद, अवध में हुआ था। बाद में उन्होंने नवाब वाजिद अली शाह के साथ मुताह निकाह किया ।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने १८५६ में अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया और अवध के अंतिम नवाब, नवाब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर, कलकत्ता भेज दिया । हज़रत महल ने अपने बेटे बिरजिस क़द्र के साथ लखनऊ में ही रहने का निर्णय किया।
अवध के अवशोषण के बाद, मेरठ में विद्रोह हुआ और लखनऊ में भी विद्रोह के ध्वज को फहराया गया जो अवध के अन्य शहरों में तेज़ी से फैल गया। लखनऊ एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ अंग्रेज़ों ने निवास भवन (रेज़िडेंसी) को नहीं छोड़ा और वे जब तक अपनी खोई हुई सत्ता को वापस हासिल नहीं कर पाए तब तक विद्रोहियों का सामना करते रहे।
हज़रत महल इस विद्रोह को लाने वाले मुख्य हस्तियों में से एक थी। रसेल कहते हैं, " उन्होंने पूरे अवध को उत्साहित कर दिया है।" नाना साहेब और मौलवी अहमदुल्लाह शाह उनके सबसे क़रीबी सहयोगी थे। लखनऊ के निवास भवन में ब्रिटिश सेना को राहत देने के लिए कानपुर से आउट्रम और हैवलॉक पहुँचे। विद्रोहियों के साथ कुछ मुठभेड़ के बाद आउट्रम ने २३ सितंबर, १८५७ को आलम बाग़़ (लखनऊ के उपनगर में एक बगीचा) पर क़ब्ज़ा कर लिया।
कानपुर में अंग्रेज़ों की जीत से उनकी योजनाओं को एक और झटका लगा। नवंबर के महीने में अँग्रेज़ी सेना के प्रमुख सेनाध्यक्ष, सर कॉलिन कैंपबेल एक छोटे से सैन्य बल के साथ लखनऊ पहुँचे ।
बेगम ने एक युद्ध में दुश्मन का सामना किया लेकिन उनका दल कमज़ोर पड़ गया। बेगम द्वारा किए गए प्रतिरोध के बावजूद अँग्रेज़ सेनाध्यक्ष अपनी घिरी हुई सेना को निवास भवन से निकाल कर आलम बाग़ तक उसका मार्गरक्षण करने में सफल रहे, जिसके दौरान कुछ अँग्रेज़ अधिकारी मारे गए और कुछ घायल हो गए।
बेगम हज़रत महल ने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रायः बैठकें बुलायीं, उन्हें बहादुर बनने और आंदोलन के लिए लड़ने के लिए कहा। उन्होंने आंदोलन के लिए निर्देश पत्र लिखे और यह बताया जाता है कि २५ फरवरी १८५८ को वह एक हाथी पर सवार होकर युद्ध के मैदान में पहुँच गईं । आलम बाग़ पर कभी-कभी मौलवी अहमदुल्लाह शाह के नेतृत्व वाली सेना और अन्य समयों पर बेगम द्वारा हमला किया गया, लेकिन अँग्रेज़ जीत गए और उन्होंने विद्रोही बल को हरा दिया ।
मार्च में, अंग्रेज़ों ने सर कोलिन कैंपबेल और नेपाल के महाराजा जंग बहादुर (जिन्होंने लखनऊ पर क़ब्ज़ा करने के लिए ३००० गोरखाओं को भेजा था) के नेतृत्व में लखनऊ के खिलाफ जंगी कार्यवाही शुरू की।
उन्होंने १९ मार्च १८५८ तक मूसा बाग़, मूसा बाग़, चार बाग़ , और केसर बाग़ पर क़ब्ज़ा कर लिया।
विपरीत परिस्थितियों में बेगम अपने अनुयायियों, बेटे बिरजिस क़द्र और नाना साहेब के साथ नेपाल पलायन कर गयीं । नेपाली अधिकारी विद्रोहियों को शरण देने में हिचकिचा रहे थे और १५ जनवरी, १८५९ को जनरल बुदरी ने कड़े शब्दों में पत्र लिखा कि "यदि आप मेरे क्षेत्र और सीमा के भीतर शरण चाहते हैं तो दोनों उच्च राज्यों के बीच अनुबंधगत संधि के अनुसरण में, गोरखा सैनिक निश्चित रूप से आप पर आक्रमण और युद्ध करेंगे ।”
नेपाली अधिकारियों ने बाद में निर्णय बदल दिया और उन्हें इन शर्तों पर शरण दी गई कि वह विद्रोही नेताओं के साथ या भारत के लोगों के साथ कोई संपर्क नहीं रखेंगी। उन्हें नेपाल में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जहाँ उनका बेटा बीमार पड़ गया नोआकोट (नेपाल) में उनके प्रभारी लेफ्टिनेंट को महसूस हुआ की बेगम की नेपाल से भी पलायन की योजना थी। कर्नल रामसे के एक पत्र के अनुसार, ऐसे पांच मार्ग थे जिनके द्वारा विद्रोही पहाड़ियों की सीमा को पार सकते थे।
बेगम के पलायन के बाद अंग्रेज़ों ने घोषणा की कि विद्रोहियों और उनके नेताओं को सरकार के विरुद्ध साज़िश करने के लिए खुद को सरकार के सामने पेश करे । यह भी कहा गया कि जिन विद्रोहियों ने ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या नहीं की, उनके जीवन को बख्शा जाएगा। यह घोषणा बेगम से लेकर सबसे नीचे पद पर कार्य करने वाले लोगों के लिए लागू थी। बेगम इसके लिए सहमत नहीं हुईं और आत्मसमर्पण करने के बजाय उन्होंने सशस्त्र प्रतिशोध के उद्देश्य से नेपाली अधिकारियों से सशस्त्र सहायता की माँग की ।
ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पेश की गई इन शर्तों के बावजूद कि “बेगम हज़रत महल के प्रति वे सभी लिहाज़ दिखाए जाएंगे जो उनके एक महिला और एक राज-परिवार की सदस्य होने के रूप में अनुकूल हैं”, बेगम हज़रत महल ने उनके सामने आत्मसमर्पण नहीं किया।
विद्रोह का दमन करने के बाद, इंग्लैंड की रानी ने ब्रिटिश भारत के लोगों को शांत करने के लिए एक उद्घोषणा जारी की इस पर प्रतिक्रिया के रूप में बेगम हज़रत महल ने एक जवाबी घोषणा जारी की और लोगों को इन वादों पर विश्वास न करने की चेतावनी दी, " क्योंकि अंग्रेज़ों की अपरिवर्ती रीति है कि भूल छोटी हो या बड़ी उसे कभी माफ़ नहीं किया जाना चाहिए। "
बेगम ने १८७७ में भारत वापस आने की कोशिश की लेकिन आदेश जारी किए गए, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत में प्रवेश करने के लिए बिरजिस क़द्र या उनकी माँ द्वारा किए गए किसी भी अनुरोध पर विचार नहीं किया जाएगा। भारत सरकार ने एक शर्त रखी कि यदि वे ब्रिटिश सरकार के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो उन्हें सरकार की ओर से कोई सहायता या भत्ता नहीं मिलेगा और वे जिस भी जिले में रहेंगे उन्हें वहाँ के मजिस्ट्रेट की निगरानी में रहना होगा।
बेगम हज़रत महल भारत नहीं आ सकीं और उन्हें स्थायी रूप से नेपाल में रहना पड़ा। १८७९ में एक महान आंदोलन के लिए विदेशी भूमि में उनकी मृत्यु हो गई । बेगम हज़रत महल की कब्र काठमांडू में है और बाद में १० मई १९८४ को उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया।
अदम्य बेगम अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता की पहली लड़ाई लड़ने वाली कुछ महिलाओं में से एक बन गईं ।