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‘नील का धब्बा’ और चंपारण में गांधीजी का सत्याग्रह

चंपारण उत्तर पश्चिमी बिहार में एक ज़िला है। यह ब्रिटिश भारत में बिहार और उड़ीसा प्रांत के तिरहुत प्रमंडल का हिस्सा था। सन् १९७२ में इसे दो ज़िलों, पश्चिम और पूर्व चंपारण में विभाजित कर दिया गया । पहले का मुख्यालय बेतिया में और दूसरे का मोतिहारी में है।

चंपारण में नील की खेती १८वीं शताब्दी के अंत में शुरु हुई। हालाँकि, पहली नील फ़ैक्टरी, सन् १८१३ में बारा गाँव में स्थापित की गयी। सन् १८५० तक नील, चंपारण का मुख्य रूप से उत्पादित होने वाला फसल बन गया, यहाँ तक कि इसकी खेती चीनी से भी अधिक हो गयी।


चंपारण में नील की खेती की प्रमुख प्रणाली तिनकठिया प्रणाली थी। इसमें किसान को अपनी भूमि के तीन कट्ठे प्रति बीघा (१ बीघा = २० कट्ठा), यानी अपनी भूमि के ३/२० हिस्से में नील की खेती करने की बाध्यता थी। इसके लिए कोई कानूनी आधार नहीं थे। यह केवल नील फ़ैक्टरी के मालिकों (प्लांटरों) की इच्छा पर तय किया गया था। इसके अतिरिक्त, सन् १९०० के बाद, यूरोप के कृत्रिम नील से प्रतिस्पर्धा के कारण बिहार की नील फ़ैक्टरियों को गिरावट का सामना करना पड़ा। नुकसान से बचने के लिए, प्लांटरों ने नील उगाने के लिए किसानों के साथ अपने समझौतों को रद्द करना शुरू कर दिया। किसानों को इस दायित्व से मुक्त करने के लिए वे एक तावान, यानी हर्जाना वसूलते थे जो रु. १०० प्रति बीघा तक पड़ता था। यदि किसान नकद भुगतान नहीं कर पाते तो, प्रतिवर्ष १२ प्रतिशत की ब्याज दर पर, हस्तांक-पत्र और बंधक ऋण पत्र बनाए जाते थे।


बंगाल की तरह, बिहार में भी नील की खेती के प्रति किसानों के बीच एक सार्वजनिक असंतुष्टी थी। इसका मुख्य कारण फसल के लिए कम पारिश्रमिक मिलना था । उन्हें फ़ैक्टरी कर्मचारियों के हाथों उत्पीड़न और अत्याचारों का भी सामना करना पड़ता था । इस सब के परिणामस्वरूप चंपारण में नील की खेती के विरुद्ध दो बार प्रतिरोध हुए। प्रारंभ में, सन् १८६७ में लालसरिया फ़ैक्टरी के पट्टेदारों ने नील उगाने से इंकार कर दिया । चूंकि शिकायतों का निवारण संतोषजनक नहीं था, इसलिए सन् १९०७-०८ में एक दूसरा विरोध हुआ जिसमें साथी और बेतिया में तिनकठिया प्रणाली के विरोध में अशांति और हिंसा का प्रदर्शन हुआ।

चंपारण में सामाजिक-राजनीतिक रूप से अधिभारित स्थिति आखिरकार ऐतिहासिक चंपारण सत्याग्रह में परिणीत हुई, जिसका पूर्वानुमान किसी को भी नहीं था, यहाँ तक की इसके नायक महात्मा गांधीजी को भी नहीं । "मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि मैं चंपारण का नाम भी नहीं जानता था, इसकी भौगोलिक स्थिति से भी अवगत नहीं था, और मुझे शायद ही नील की खेती के संबंधी कोई जानकारी थी।"


उस समय गांधीजी रंगभेद व्यवस्था के विरुद्ध एक सफल सत्याग्रह के बाद दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे। इस प्रकार, उन्हें एक मुक्ति दाता के रूप में देखा जाने लगा था। नील की खेती के प्रति आक्रोश देखने पर एक धनी किसान, राज कुमार शुक्ला, महात्मा गांधीजी को चंपारण आने और उत्पीड़ित किसानों के लिए काम करने हेतू रज़ामंद करने पर विवश हो गए पट्टेदारों के लिए मुकदमा लड़ने वाले एक प्रतिष्ठित बिहारी वकील, ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ शुक्ला पहली बार गांधीजी से लखनऊ में मिले, जहाँ वे सन् १९१६ की कांग्रेस की वार्षिक बैठक में भाग लेने आए थे। शुरू में गांधीजी उन दोनों से अप्रभावित रहे और उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक वे स्थिति को स्वयं नहीं देखते, वह कुछ नहीं करेंगें। इसके अतिरिक्त, उन्होंने उनकी सहमति के बिना ही प्रस्ताव पारित करने के लिए कहा। ब्रजकिशोर प्रसाद ने चंपारण में किसानों के संकट के बारे में कांग्रेस की बैठक में एक प्रस्ताव रखा। शुक्ला ने इसका समर्थन करते हुए भाषण दिया। सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हो गया ।

तब भी शुक्ला संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने गांधीजी का कानपुर और साबरमती तक पीछा किया। गांधीजी अंत में चंपारण जाने के लिए सहमत हो गए। "मुझे कलकत्ता अमुक तारीख पर जाना है, तब आओ और मुझसे मिलो, और मुझे वहाँ से ले जाओ।" गांधीजी के चंपारण पहुँचने की खबर ने ब्रिटिश अधिकारियों में खलबली मचा दी । उनका मानना था कि गांधीजी का आगमन चंपारण में भड़काऊ स्थिति को बढ़ावा दे सकता है। साथ ही, वे इस बात से भी अवगत थे कि गांधीजी के विशाल अनुयायों को देखते हुए, उन पर नज़र रखना और उनसे निपटना भी पड़ेगा ।

गांधीजी पहले मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। स्थिति के प्रति संवेदनशील होने के नाते, उन्होंने तुरंत तिरहुत प्रमंडल के आयुक्त को पत्र लिखकर सूचित किया कि वे सरकार के संज्ञान और सहयोग के साथ काम करना चाहते हैं। उन्होंने मिलने के लिए समय माँगा ताकि वह अपनी यात्रा के उद्देश्य के बारे में उन्हें अवगत करा सकें।

बैठक में, गांधीजी ने सार्वजनिक मांग के कारण, चंपारण में नील की खेती की स्थिति और इसके साथ जुड़ी पट्टेदारों की शिकायतों के बारे में पूछताछ करने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी अशांति फैलाने की कोई मंशा नहीं है। यह साबित करने के लिए कि वास्तव में उनके आगमन की सार्वजनिक मांग थी, उन्हें परिचय पत्र दिखाने कहा गया, जिसे उन्होंने अंततः प्रस्तुत कर दिया ।


स्पष्टीकरण के बावजूद भी ब्रिटिश अधिकारी गांधीजी के उद्देश्यों के बारे में आशंकित थे। उनका मानना था कि उनकी मंशा आंदोलन करने की थी, जिससे सार्वजनिक शांति भंग होने की भारी संभावना थी । इस प्रकार, यह निर्णय लिया गया कि जैसे ही वह चंपारण पहुँचे, उन्हें आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १४४ के तहत ज़िला छोड़ने का नोटिस दिया जाना चाहिए।

महात्मा गांधी आखिरकार १५ अप्रैल, सन् १९१७ को चंपारण ज़िले के मुख्यालय मोतिहारी पहुँचे। उन्होंने जसौली गाँव का दौरा करने का फैसला किया, जहाँ एक पट्टेदार के साथ दुर्व्यवहार किया गया था। जब वह रास्ते पर ही थे तब एक सब-इंस्पेक्टर ने आकर उन्हें सूचित किया कि धारा १४४ के तहत एक आदेश जारी किया गया है और उनसे वापस आने और ज़िला मजिस्ट्रेट से मिलने का अनुरोध किया । गांधीजी रास्ते से लौट आए लेकिन उन्होंने नोटिस का पालन करने से इंकार कर दिया। उन्होंने मजिस्ट्रेट को लिखा कि वे चंपारण से नहीं जाएंगे और वे इस अवज्ञा का दंड भुगतने के लिए तैयार हैं।

परिणामस्वरूप, गांधीजी पर भारतीय दंड संहिता की धारा १८८ के तहत भी आरोप लगाए गए और १८ अप्रैल को मुकदमे के लिए बुलावा भेजा गया। मुकदमे की सुनवाई का दिन चंपारण के इतिहास में सबसे यादगार क्षणों में से एक है। न्यायालय के सामने किसानों की भारी भीड़ जमा हो गई थी। मुकदमा शुरू हुआ और सरकारी वकील ने गांधीजी के विरुद्ध मामला पेश किया। अपनी बारी आने पर, गांधीजी ने अपना बयान पढ़ा जिसमें उन्होंने दोबारा कहा कि उनका किसी भी प्रकार का आंदोलन शुरू करने का इरादा नहीं है। बल्कि, उसका उद्देश्य केवल संकट-ग्रस्त किसानों के लिए मानवीय और राष्ट्रीय सेवा था जिसे वह आधिकारिक सहायता के साथ हासिल करना चाहत थे। उन्होंने कोई बचाव पेश नहीं किया, बल्कि जेल जाने की स्वेच्छा व्यक्त की।

गांधीजी के रुख ने अधिकारियों को चकित कर दिया। संभ्रम की स्थिति को देखते हुए सज़ा सुनाने की प्रक्रिया को स्थगित करने का निर्णय लिया गया। इस बीच, उप-राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया और गांधीजी के विरुद्ध अपर्याप्त साक्ष्य और धारा १४४ लागू करने की संदिग्ध वैधता के आधार पर स्थानीय प्रशासन को मामला वापस लेने का आदेश दिया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने गांधीजी को जाँच करने की अनुमति भी दी। इस प्रकार, सिविल डिसओबीडिय्न्स और सत्याग्रह के आदर्श, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विशेषता बन गए, चंपारण से शुरू हुए ।

इसके बाद, पहले मोतिहारी और फिर बेतिया में गांधीजी ने अपनी जाँच को आगे बढ़ाया। इस पूरे समय में उन्हें अपने सहकर्मियों द्वारा सहायता प्रदान की गई, जिन्होंने पूछताछ के संचालन में स्वयंसेवकों के रूप में काम किया। इनमें राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, मज़हर उल हक़, जे.बी. कृपलानी, रामनवमी प्रसाद आदि कई हस्तियां शामिल थीं। कई गाँवों से हज़ारों किसान नील खेती प्रणाली के प्रति अपनी शिकायतों के बारे में अपने बयान देने के लिए आए । इस सब के बीच, गांधीजी किसानों के लिए एक वीर नायक बन गए थे। वे उन्हें अपना उद्धारकर्ता मानते थे और उनके दर्शन की प्रतीक्षा करते थे।

बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन ने इस आधार पर जाँच का ज़ोरदार विरोध किया कि इससे एक पक्षपात तस्वीर पेश होती है और इसमें उनके खिलाफ किसानों द्वारा दंगों को भड़काने की क्षमता थी। उन्होंने मांग की कि गांधीजी की जांच को रोक दिया जाना चाहिए और यदि आवश्यकता हो तो सरकार द्वारा ही निष्पक्ष जाँच शुरू की जानी चाहिए। इसके अलावा, कुछ यूरोपीय अधिकारी भी स्थिति से आशंकित थे और उनका मानना था कि गांधीजी की जाँच एक यूरोपीय-विरोधी आंदोलन बन सकता था ।


जैसे ही यह विरोध तेज़ हुआ, सरकार ने मामले में हस्तक्षेप किया। गांधीजी को बिहार और उड़ीसा सरकार के कार्यकारी परिषद के सदस्य डब्ल्यू. मौड के साथ साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, जिन्होंने गांधीजी को अब तक की जाँच की प्रारंभिक रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि इस बीच गांधीजी के साथियों द्वारा बयानों का अभिलेखबद्ध करना रोक दिया जाना चाहिए और केवल उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से पूछताछ करनी चाहिए। गांधीजी ने १३ मई को रिपोर्ट सौंपी, परन्तु उन्होंने अपने सहकर्मियों की सेवाओं के न लेने के अनुरोध के अनुपालन से इंकार कर दिया। "मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस अनुरोध ने मुझे गहरी चोट पहुँचाई है ...। मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि इन कठिन कार्यों में मुझे इन योग्य, ईमानदार और सम्माननीय व्यक्तियों का सहयोग मिला। मुझे ऐसा लगता है कि मेरे लिए उन्हें छोड़ देना अपना काम छोड़ देने के बराबर है। ”


धीरे-धीरे, सरकार द्वारा एक जाँच आयोग की संस्था की मांग बढ़ गई। इस संबंध में, गांधीजी को ४ जून को उप-राज्यपाल, सर ई.ए. गेट द्वारा उनकी जाँच की प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के संबंध में एक बैठक के लिए राँची बुलाया गया।

कुछ दिनों बाद, उप-राज्यपाल ने, परिषद सहित, चंपारण में कृषि स्थितियों की जाँच करने और उसका विवरण देने के लिए एक जाँच समिति नियुक्त करने का निर्णय लिया। गांधीजी को इसके सदस्यों में से एक के रूप में नियुक्त किया गया । जैसे ही यह गठित कि गई, गांधीजी ने व्यक्तिगत रूप से किसानों के बयान लेने बंद कर दिए १० जून को समिति का प्रस्ताव प्रकाशित किया गया, जिसमें उनके कर्तव्य इस प्रकार निम्नलिखित थे: ज़मींदार और पट्टेदार के बीच संबंधों की जाँच करना, इस विषय पर पहले से ही मौजूद साक्ष्यों की जाँच करना और इसमें शामिल सभी लोगों की शिकायतें दूर करने की सिफारिश देना।


समिति ने जुलाई के मध्य से अपना काम शुरू किया और तीन महीने की अवधि के बाद, ४ अक्टूबर १९१७ को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित सिफ़ारिशें थीं:

पहली, तिनकठिया प्रणाली को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। दूसरी, अगर कोई नील उगाने के लिए किसी समझौते में शामिल होता है तो यह समझौता स्वैच्छिक होना चाहिए, इसकी अवधि तीन साल से अधिक की नहीं होनी चाहिए और जिस क्षेत्र में नील को उगाया जाना है उसका चयन करने का निर्णय किसानों पर निर्भर होना चाहिए। तीसरी, नील पौधों की बिक्री की दर को किसानों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए। चौथी, फ़ैक्टरियों को तावान देने वाले किसानों को इसमें से एक चौथाई हिस्सा वापस मिलना चाहिए। पाँचवीं, अबवाब (अवैध उपकर) की वसूली को रोका जाना चाहिए। सरकार ने जाँच समिति की लगभग सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया । सिफारिशों को लागू करने के लिए सरकार ने एक प्रस्ताव भी जारी किया। इस रिपोर्ट के आधार पर, डब्ल्यू. मौड ने २९ नवंबर १९१७ को विधान परिषद में चंपारण कृषि बिल पेश किया और उसी दिन एक उल्लेखनीय भाषण भी दिया। १९१८ में, अंततः, विधेयक पारित किया गया और यह चंपारण कृषि अधिनियम बन गया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “तिनकठिया प्रणाली, जो लगभग एक सदी से अस्तित्व में थी, इस तरह समाप्त कर दी गई और इसके साथ ही प्लांटरों का राज भी समाप्त हो गया।’’

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